सहनशीलता

 

    सहनशीलता : बिना थके और बिना आराम किये प्रयास के अन्तिम छोर तक जाना ।

 

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    सहनशीलता है बिना अवसाद के सहन करने की क्षमता ।

 

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    चलो प्रसन्न हो जाओ, अगर हम डटे रहना और सहन करना जानें तो सब कुछ ठीक हो जायेगा ।

 

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    जानना और सहन कर सकना और डटे रह सकना, ये चीजें निःसन्देह अचल अटल आनन्द लाती हैं ।

 

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    सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है सतत शान्त सहनशीलता जो तुम्हारी प्रगति में किसी तरह की अस्तव्यस्तता या अवसाद का हस्तक्षेप नहीं होने देती । अभीप्सा की निष्कपटता विजय का आश्वासन है ।

 

    अचंचल सहनशीलता सफलता का निश्चित मार्ग है ।

१४ जून, १९५४

 

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    जिन चीजों को हम आज चरितार्थ नहीं कर पाये उन्हें हम कल चरितार्थ कर पायेंगे । आवश्यकता है केवल सहने की ।

२० अगस्त, १९५४

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    विजय उसी को मिलती है जो सबसे बढ़कर सहनशील है ।

६ सितम्बर, १९५४

 

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    सहते चलो और तुम्हारी विजय होगी । विजय सबसे अधिक सहनशील के हाथों में आती है ।

 

    और भागवत कृपा और भागवत प्रेम के साथ कुछ भी असम्भव नहीं हैं ।

 

    मेरी शक्ति और मेरा प्रेम तुम्हारे साथ हैं ।

 

    संघर्ष के अन्त में होती है 'विजय' ।

७ जनवरी, १९६६

 

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    नीरव सहनशीलता : शाश्वत प्रेम की सहायता से विजय की ओर अगला कदम ।

 

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    भागवत कृपा की ओर खुलो और तुम सह सकोगे ।

 

धैर्य

 

    धैय : समस्त सिद्धि के लिए अनिवार्य ।

 

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    धैर्य : परम सिद्धि के आगमन के लिए निरन्तर प्रतीक्षा करने की क्षमता ।

 

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    निस्सन्देह संसिद्धि धैर्य का फल है ।

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 धैर्य के साथ मनुष्य हमेशा पहुंच जाता है ।

 

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    एक दिन में कोई अपने स्वभाव पर विजय नहीं पा सकता । लेकिन धैर्यपूर्ण और सहनशील संकल्प द्वारा 'विजय' आयेगी ही आयेगी ।

 

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    धैर्य के साथ किसी भी कठिनाई को पार किया जा सकता है ।

मार्च, १९३४

 

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    सब कुछ अपने समय पर आयेगा; विश्वासपूर्ण धीरज रखो, सब ठीक हो जायेगा ।

अगस्त, १९३४

 

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    धीरज ओर अध्यवसाय के साथ सभी प्रार्थनाएं पूरी होती हैं

४ फरवरी, १३८

 

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    सचाई के साथ, प्रगति के लिए प्रयास करो, और धीरज के साथ, अपने प्रयास के फल की प्रतीक्षा करना सीखो ।

२१ अक्तूबर, १५१

 

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    प्रतीक्षा करना जानने का अर्थ है 'समय' को अपने साथ रखना ।

 

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    ैं चौकस, नियमित और समय का पाबन्द होने के बारे में बहुत अधिक चिन्ता करता हूं । अगर मैं कभी इन चीजों में जरा भी चू

 

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    जाऊं तो मैं अस्थिर उठता हूं फिर यह अनुभव करता हूं कि मुझे और भी जल्दी करनी चाहिये आन्तरिक जीवन के मामलों में भी मेरी यही प्रवृत्ति है | मेरा ख्याल है इस वृत्ति को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिये |

 

    हां अधीर और उत्तेजित नहीं होना चाहिये-तुम्हें सब कुछ शान्ति और अचंचलता के साथ बहुत अधिक उतावली के बिना करना चाहिये ।

 

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    अगर हर अवस्था और हर मामले में मन अचंचल रहे तो धीरज की अधिक आसानी से वृद्धि होगी ।

 

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    योग जल्दबाजी में नहीं किया जा सकता-इसके लिए बहुत, बहुत वर्षों की आवश्यकता होती है । अगर तुम ''समय से बंधे '' हो तो इसका मतलब यह है कि तुम्हारा योग करने का कोई इरादा नहीं है--क्या ऐसी बात है ?

 

    आत्मा नहीं बल्कि अहं और उसका दर्प ''पराजय और मान-मर्दन'' का अनुभव करते हैं ।

१० नवम्बर, १६१

 

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    जब आदमी जल्दबाजी में नहीं होता तो बहुत अधिक तेजी से आगे बढ़ता हे ।

 

    सचमुच आगे बढ़ने के लिए, मनुष्य को पूर्ण विश्वास के साथ यह अनुभव करना चाहिये कि उसके सामने शाश्वत काल पड़ा है ।

जुलाई,६२

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           मधुर मां,

 

        बहुधा अक्षमाता की और 'आपसे' दूर की भावना सकंल्प को हतोत्साह करती है ैं अपने रहने और अनुभव करने के तरीके से तंग आ गयी--इसका अन्त नहीं दीखता  ।

 

किसी वस्तु को चरितार्थ करने के लिए व्यक्ति को धीरज धरना होता है । जितनी विशाल और जितनी अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धि होती है, उतना ही अधिक महान् धीरज होना चाहिये ।

 

    आशीर्वाद ।

 

मई, ९६

 

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     माताजी, जब में आपको लिखता हूं तो हमेशा यह ''मैं'' आगे होता है । मैं जानता हूं कि इस तरह लिखने का अधिकार नहीं-- यह कितना अहंकारपूर्ण है मुझे पता नहीं  इस कठिनाई को कैसे पार करूं । मुझे मालूम है कि यह बड़ी कठिनाई नहीं है,  लेकिन यह रास्ते के रोड़े की तरह है जिसे देखते है हुए भी आदमी ठोकर खा जाता है |

 

लक्ष्य तक पहुंचने के लिए धैर्यवान् और हठी होना चहिये ।

८ मई,७१

 

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